1. अनिवार्य रूप से अंग्रेजी थोपने का विरोध
अंग्रेजी हटाओ कहीं से थोड़ा कहीं से ज्यादा
आधुनिकता और अंग्रेजी पर्यायवाची नहीं है
आज देश को गुलाम होने से, गुंगा-अपाहिज होने से बचाना पडेगाः शिक्षण विभाग को राष्ट्रप्रतीक रूपी राजभाषा हिन्दी के विदेशी-भाषा अंधा अंग्रेजीकरण के मोह से छुटकारा, समाज प्रत्येक हिन्दुस्तानी की नैतिक कर्तव्य जगाकर भारतीय संस्कृति रूपी श्रेष्ठत्तम साहित्य की बली को रूकवाना होगा। अंग्रेजी माध्यम का इतना व्यापक प्रचार सभी के घर की मुस्कान छिन कर बहार आएगा।
अब भी बहोत देर नहीं हुई... आज शिक्षा के कर्णधारों से अंग्रेजी मिटाने की बात नही केवल जहां जरूरत न हो वहाँ से हटाने की स्वतंत्रता से, चाह से कोई भी भाषा में अभ्यास सम्पन्न करने की आज़ादी की बात रखनी है। वह स्वतंत्र भारतीय संविधान – प्रावधान के विरूद्ध नहीं बल्कि प्रत्येक का अधिकार हैं। वह कोई दूर, किसी भी तरह से नहीं कर सकता।
केवल जागृत होने की आवश्यकता हैं, कयोंकि अब यदि इस समय कोई इनसे ये कार्यक्रम- विषय पसंदगी चुनाव को न रोका तो आनेवाले समय में केवल हिन्दी साहित्य हीं नहीं आटर्स संकाय कॉलेज के सभी विषयों की बलि दे दी जाएँगी। साहित्य को मृतप्रायः अवस्था उनके स्थानाक्रम से स्पानाच्युत करके विषय, भाषा के ज्ञान को दूर करने की किमियो अंग्रेजी शासन की लार्ड मेकोलो की देन आज साहित्य पढ़नेवालों को रोज़गारी की गेरंटी सरकार दे तो सकती नहीं अगर जिन्हों ने साहित्य पढ़कर व्यवसायलक्षी अभ्यासक्रम से मिलनेवाली रोज़गारी ही मिलने की सभी आशा-अपेक्षा-अरमानों को कुचल डाला है। हमें अब तो पहले आशंका रहती थी की मल्टिनेशनल कंपनी रूपी अंग्रेज सरकार का नया अवतार तो नहीं तब भी उनके पक्ष को मजबूत करनेवाले देश के थोडे बहुत अंग्रेजभक्त उनकी सेवा में लगे थे। आज कया पुरा शिक्षा-तंत्र उनकी गिरफ्त में आ चुका हैं? वे लोग जानते है यहि इनपर राज करना हो, इनको भ्रम में रखना हो, इनसे माल एँठना हो तो उनकी भाषा पर पहला प्रहार करो...यदि ये भाषा भूल गया तो हम उसे पहले 200 दोसौ सालों में नहीं करवा सके वे अब करवा एँगे।
शिक्षण का दायित्व ऐसे हाथों मे चला गया जहां आज केवल पैसो की नुमाईश पर पहले कया मिलता था... आज दो कौडी की डिग्रियाँ हाथ में थामे हिन्दुस्तान का युवान मारा-मारा फिरता हैं। ग्लोबलाइजन – वैश्वीकरण की आड में हिन्दुस्तान अशिक्षितता की ओर जां रहा हैं। कयों कि वहाँ पैसे तो बहुत कमा भी ले किन्तु परिवार से तूटता जा रहा हैं। 20-21 वीं सदी ने परिवार की परिपाटी तो मिटा दी, मगर 21 वीं सदी ने तो व्यकित को ही अकेला छोड़ दिया है। यह सब उन अंग्रेजी-पद्धति की परिपाटी को जब तक मूल-रूप से भारतीय-संस्कृति- वैदिक-ऋषिकुल- परंपरा ऋचा से अंलकृत नहीं करेंगे तब तक यह रींगा-रींगा रोजी.... वाला गीत प्लेहाउस से पीएच.डी. तक बीना काम-धाम के सबको नचाता रहेंगा। मैंने यह उपदेश स्वरूप बातें आपके समक्ष मुफ्त की सलाह के लिए नहीं लिखी। मैं समझता हूँ कि आदमी यह सबकुछ पढ़कर केवल एक ही सास में बोल जाता है कि ये सब होता तो अच्छा होगा मगर इस में “मैं” कया कर सकता हूँ? मैं कयों इस झंझट में अपना समय बरबाद करुँ। यह सोचकर आधे मिनिट में ये शब्द भी भूल जाएँगा। उनसे मैं कहूगा, यह कार्य आज तक इसलिए नहीं हो रहा कि में इस बिठाडे हुए सीस्टम को कयों हाथ लगाऊँ? आत्मचिंतन करो कि यह शिक्षा-पद्धति का आमूल परिवर्तन कया समाज को ही काम आएँगा? आपके पूरे परिवार, जिसके आप मामा-मामी, चाचा-चाची,फूफ़ा-फुफी, माँ और बाप हो उनका भविष्य कया उज्जवल नहीं होगा?
स्वार्थी बनो तो भी समाज के श्रेष्ठत्तम रूप को नया बदलकर परिवार के स्वार्थ से भी ऊपर उठकर जीवन का आनंद ले सकते हो। आज आधी जिन्दगी अभ्यासक्रम पढ़ने में गँवाई आधी अभ्यासक्रम की फलश्रुति समाज में ढूँढ़ने से भी नहीं मिलती, ऐसे रोज़गार में बेमन पडे रहोगे। तो कयों न हिन्दुस्तान के एक राज्य के छोटे गाँव के तुम्राहे घर से, मेरे घर से यह परिवर्तन पुरी लहर को, नहीं के इस झरने को महासागर में डालकर श्रेष्ठ शिक्षण-व्यवस्था से श्रेष्ठ समाज का उनसे श्रेष्ठ नागरिक निर्माण खूद के राष्ट्र अस्मिता की रक्षा खूद की आहूति देकर करें तो हमारा भारत जहाँ डाल-डाल पर.... सोने की चिड़ियाँ करती हैं बसेरा... इतना कहना काफि है जिसने जन्म आर्यावत की भूमि में लिया हैं इसलिए आपसे सविनय प्रार्थना करते है कि सर्वप्रथम इस विषय-पसंदगी पद्धति में रहा अनिवार्य अंग्रेजी को या हटाइए या अनिवार्य हिन्दी को साथ-साथ अपनाइए। या अंग्रेजी के विकल्प में हिन्दी को रखें। ये हम सब हिन्दी शिक्षा बचाओ परिषद की माँग है। सबसे पहले तो लाखों की संख्या में छात्रों का अभ्यासक्रम स्थगित हुआ हैं।
गाँव के छात्र और नगर के छात्रों के बीच पास होने और शिक्षा स्तर में बड़ा अंतर आया है।
हिन्दी के छात्र कक्षा में मुश्कल से मिलता हैं इसलिए छात्रों की कमी हुई है।
नये हिन्दी शिक्षकों के भविष्य में अंधेरा छाया हुआ है, उनको रोजगारी है नहीं अतः रोजगारी मिलने का कोई आश्वासन भी उनको नहीं है।
नये हिन्दी शिक्षक की इतने सालों की मेहनत पर सरकार की नीति से बेरोजगारी का छाया मंडरा रहा है।
नये हिन्दी शिक्षक 30-35 साल के Net- Slet पास B.Ed. M.Ed. M.A. M.Phil Ph.d. को 3000/- की नौकरी भी नशीब नहीं होगी, केवल एक विदेशी भाषा की अनिवार्यता के कारण यह परिस्थिति पैदा हुई हैं।
मुझे माहिती अधिकार एकट के तहत जो आंकडे मिले हैं वह चौका देने वाले हैं।
मार्च 2005- 10 वीं में हिन्दी विषय के उमेदवारों की संख्या 3,68,736
मार्च 2006- 10 वीं में हिन्दी विषय के उमेदवारों की संख्या 3,54,542
मार्च 2007- 10 वी में हिन्दी विषय के उमेदवारों की संख्या 1,16,546
मार्च 2008- 10 वी में हिन्दी विषय के उमेदवारों की संख्या 1,11,836
मार्च 2009- 10 वी में हिन्दी विषय के उमेदवारों की संख्या 96,021
मार्च 2010- 10 वी में हिन्दी विषय के उमेदवारों की संख्या आश्चर्यजनक होगी!
यह अंग्रेजी हटाओ कतई नहीं है, कि हमें अंग्रेजी से नफ़रत है। किसी भी भाषा या साहित्य से कोई मूर्ख ही नफ़रत कर सकता है। हमारे स्वर्णिम गुजरात में अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन अंग्रेजी का नहीं, बल्कि उसके रूतबे का विशेषाधिकार का, उसकी शोषणकारी प्रवृत्ति का विरोधी है। इसलिए हमने कहा “अनिवार्य अंग्रेजी हटाओ।” हमने यह कभी नहीं कहा कि ‘अंग्रेजी मिटाओ’।
अंग्रेजी कहाँ से हटे? न्यायालय से हटे, राज-काज से हटे, कारखानों से हटे, फौज़ से हटे, अस्पताल से हटे, पाठशाला- प्रयोगशाला से हटे, घर-द्वार बाजार से हटे। टूट कर कहाँ जाएँ? पुस्तकालयों में जाए, विदेशी भाषा शिक्षण संस्थानों में जाएँ। वहाँ भी सारी जगह, धेरकर पसरे नहीं। दुनिया की अन्य भाषाओं के लिए भी थोड़ी-थोड़ी जगह खाली करें। हटना उसे सभी जगह से पड़ेगा। कहीं से कम, कहीं से ज्यादा।
बहरहाल कक्षा 10-12 वीं में अनिवार्य अंग्रेजी से राज्य सरकार संचालित पाठशाला में 5500 सौराष्ट्र विस्तार / उत्तर गुजरात 3500 से ऊपर की संख्या में हिन्दी- विषय शिक्षक पाठशाला में अन्य विषय पढ़ाने पर मजबूर हो गए हैं। केवल विषय पसंदगी का आदर्श नमूना 2005 तक 10 में 2007 तक, 12 वीं में था, तब तक पुरे माध्यमिक उच्चतर माध्यमिक में छात्रों की संख्या लाखों की तादात से घटाने का कार्य शिक्षा संस्थान बोर्ड /समिति/सचिव के भविष्य कि चिंता किए बिना काले अंग्रेज बनाने का पाठय विषय चुनाव लगा, अनिवार्य रूप से अंग्रेजी सिखो! काले अंग्रेज बनो। गुलामी के दिनों में गोरे गर्वनर का रूतबा शोषणकारी प्रवृत्ति दक्ष बनो। इसके लिए हाल सरकार ने 10-12 वीं केवल 20 अंक लानेवाले छात्र पास होंगे ऐसी भी नीति बना रखी हैं। ये कैसी शिक्षा कि दिशा हुई है। यह तो जालशाजी से समाज के प्रबुद्ध कब जागृत होंगे? यह सारे तथ्याश्रित धरना से पाठशाला- कॉलेज में वर्तमान समय में यह स्थिति से हिन्दी शिक्षक- प्राध्यापक आदि तो किसी न किसी तरह अपनी परिस्थिति से समझोता करके बैठे हुए है मगर अभी तक जिन्हों ने हिन्दी विषय से बी.ए, बी.एड्., एम.फिल, पीएच.डी. और नेट-स्लेट पास हुए अंदाजित 1,00,000 से अधिक हिन्दी शिक्षकों का भविष्य बेरोज़गारी गहरी खाई में धकेल देनेवाले अफसरों से मेरा गुजरात के जागृत हिन्दी राजभाषा सम्मान करनेवाले छात्रों की सहमति से गुजरात हाईकोर्ट न्यायलय जनहित की याचिका दायर करने का फैंसला कर लिया हैं। यह लड़ाई अब भारतीय भाषा की, भारतीय स्वाभिमान की, हिन्दी राजभाषा अस्मिता की और गांधी के गुजरात में अंग्रेजी में काम न होगा न करने देंगे, फिर से देश को गुलाम न होने देंगे।
कयोंकि पीछले तीन वर्षो में कक्षा 10-12 वीं के इम्तिहान के दबाव में 20,000 से अधिक आत्महत्याएँ हो चुकी हैं। हररोज तीन-चार शिक्षा प्राप्त या अशिक्षित युवा बेरोज़गारी के कारण अपने जीवन को बेकार मान, मौजुदा महेगाई के जमाने में अपना और परिवार का पेट कैसे पाले यह सवाल का जवाब किस से लिया जाएँ? इसकी कस म कस अपने जीवन को अकारण समेटने पर मजबूर हो जाते हैं। जिन शिक्षा से बरसो तक नौंकरी मिलने की आशा की जाती थी उसको सरकार के शिक्षा विभाग ने हिन्दी को अनिवार्यता से हटाकर संस्कृत के विकल्प में रखकर मानवहत्या का पाप भी अपने सिर पर लिया हैं। कुदरत, न्यायलय इसे कभी माफ नहीं करेगा।
राजभाषा की सांविधानिक स्थिति अनुच्छेद 343 (1) के अनुसार देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी संघ की राजभाषा हैं। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने स्वरूप राजभाषा नीति के कार्यान्वय हेतु 2007-08 के लिए निर्धारित लक्ष्य (क, ख और ग तीनों में गुजरात ख क्षेत्र के अंतर्गत आता हैं। सरकारी सूत्र (7) हिन्दी प्रशिक्षण- भाषा, टंकन, आशुलिपि 100 प्रतिशत होनी चाहिए फिर भी कयों अहिन्दीभाषी प्रदेश को अनिवार्य अंग्रेजी पढ़ने पर कयों मजबुर कर रहे हो। सरकार को न्याय के कटहरें में खडी करनी होगी। भारतीय संविधान 5, 6, 7 और 17 में राजभाषा संबंधी उपबंध है, भाग 17 वें का शीर्षक राजभाषा हैं। इस भाग में चार अध्याय हैं जो क्रमशः संघ की भाषा प्रादेशिक भाषा उच्चत्तम न्यायालय एवं उच्च न्यायलय आदि की भाषा एवं विशेष रूप से जुडे हैं। ये अध्याय अनुच्छेद 343-351 के अन्तर्गत समाहित है। इसके आंतरिक अनुच्छेद 120-210 में संवाद एवं विधानमंडलों की भाषा के संबंध में विवरण हैं। राजभाषा की प्राथमिक शर्त देश में राजनीतिक प्रशासनिक एकता कायम करना हैं।
मगर हमारे संविधान निर्माताओंने राजनीतिक स्वार्थ परकता और प्रांतीय वैमनस्य की आग में राष्ट्रभाषा के प्रश्न को झोंक दिया, ऊपर से बुरा यह कि राजभाषा के नाम पर हिन्दी के साथ साथ अंग्रेजी के विकल्प को भी कायम कर दिया। अहिन्दी भाषियों के लिए तो ठीक ही था, रही गई कसर हिन्दी भाषियों की अतिरिकत उदारता, अवसरवादिता और अंग्रेजी परस्ती ने पुरी कर दी। इससे हिन्दी जिसे राजभाषा का संपूर्ण अधिकार मिलना चाहिए था उसे अनिश्चित काल के लिए वैकल्पिक भाषा बनाकर उसके भविष्य को अहिन्दीभाषी प्रांतों पर छोड़ दिया।
आज गुजरात के प्रत्येक गुजराती को संकल्प लेना होगा कि संघ की राजभाषा-गुजराती – हिन्दी को अनिवार्य रूप अपनाकर गुजरात पर भाषा की कालिख कालिमा मा.मूख्यमंत्री को पहचान कर गुजरात-गौरव भाषा माध्यम अंग्रेजी शिक्षा-नीति से हुई हानी को देखें और अपने शासन में शीध्र ही इस प्रश्न को हल करवाएँ। कयोंकि जिसकी जमीन नहीं होगी, उसका आसमान भी नहीं होगा। वह त्रिशंकु बनकर रहेगा। इसलिए भारतीय होंने के नाते हमारा नैतिक, सामाजिक उत्तरदायित्व है कि वे हिन्दी को इसका यथोचित सम्मान दें। हमें यह सोचना चाहिए कि इतिहास हमें कहीं गद्दार न कहें आनेवाली पीढ़ियों हमें कहीं भाषा का बलात्कारी न कहें।
आनेवाला समय जीवन, जगत, सतऋतु, जलवायु कैसी होगी इसकी भविष्यवाणी तो नहीं की जा सकती। पर इतना अवश्य हैं कि सरकार और जनता के बीच भाषा का संवाद, संपर्क सकारात्मक होगा, रहेगा तो हिन्दी विश्वभाषा बनने के अधिकार को प्राप्त कर लेगी।
शिक्षण- विभाग ने भाषा-बोझ के नाम पर हिन्दी का बलिदान अंग्रेजी सिक्षा के प्रसार हेतु लिया है। अगर अंग्रेजी जैसी विदेशीभाषा बोझ नहीं समझी जाती तो फिर गुजरात राज्य की राजभाषा यानी हिन्दी की शिक्षा बोझ कयों मानी जाती है? आज के दौर में राजभाषा- राष्ट्रभाषा के शिक्षण को अनिवार्य मानते हैं। गुजरात में ऐसे निर्णय से ग्रामीण और नगर के शिक्षा स्तर में बड़ा अन्तर आ जाएँगा। आज भी ग्रामीण क्षेत्र में अंग्रेजी भाषा के जानकार शिक्षको की कमी है और सामान्य अंग्रेजी का ज्ञान रखनेवाले शिक्षकों के सामान्य ज्ञान से विद्यार्थीओं को अंग्रेजी सिखायी जाती हैं। इससे तो न हिन्दी के रहे न अंग्रेजी के रहे। दुविधा में दोनु गए, भाषा मिली न राम।
दुसरी अवदशा यह हुई कि अंत्यत कष्टमय बना दिया उन हिन्दी शिक्षितों को, जो अभी-अभी युनि. से अभ्यास पुरा कर रोज़गारी की तलाश में राष्ट्रभाषा का दामन हाथ लिए बड़ी उम्मीद से समाज मे पदार्पण कर रहे थे। उनके सारे अरमानों को, और केवल अब हिन्दी विषय से शुरूआत हुई है, आटर्स फेकल्टी के सभी विषयों को धीरे-धीरे ख़त्म मृतप्राय कर दिया जाएगा। कॉलेज में केवल कॉमर्स का बोलबाला दिख रहा है वह आनेवाले समय में स्वनिर्भर संस्थाए अपने खुद की संस्था पोषित पल्लवित हो छात्र की जिम्मेदारी किसी की भी रहेगी नहीं। सरकार शिक्षा अधिकार तो देती है मगर रोजगारी नहीं दे पाएँगी।
इन षड्यंत्रकारी साजिस रखनेवाले कारिदों कि वजह से समाज से, शिक्षण से साहित्य की डोरी टूटने जा रही हैं। वैसे साहित्य जीवन की सभी श्रेष्ठतम अभिव्यकितयों का भंड़ार है। उसमें ज्ञान विज्ञान समाज की सभी बातों को सम्मिलित करते थे। आज तक समाज का सभी स्तर पर, खुद की चाह से प्रत्येक विषय में विशारद से पीएच.डी. तक संशोधन कार्य करके लोग जीवन निर्वाह, रोज़गारक प्राप्त करी ही लेते थे। मगर आज लगातार 10 वर्ष से कला संकाय को (आटर्स फेकल्टी को ही) धीरे-धीरे छात्रों के अभाव में बंद करने की घड़ी ज्ञान-विज्ञान-टेकनालाजी युग के समय परिवर्तन कारण देकर शिक्षण-विभाग मिटाने में सहभागी न बन जाएँ ये ध्यान रखना होगा। समाज की सच्ची तस्वीर साहित्य के विविध ऐंगल से देखना होगा। साहित्य समाज का आइना है। यदि ये आइना ही मिट जाएगा तो समाज कया केवल बजेट के आँकडों को ही देखकर संतृप्त होगा। नहीं हिन्दी विषय को बचाना है उसे उचित स्थान पर इसलिए प्रतिष्ठित करना है कयों कि पूरे साहित्य को, साहित्य की परंपरा को बचाना है, गुजराती भाषा, सामाजिक विज्ञान, समाजशास्त्र, नृवंशास्त्र, मनोविज्ञान, संस्कृत सभी समाज के अंग बन चुके है उसे स्थानाच्युत करना और समाज को पश्चिमी सांचे में ढालने की कोशिष भारतीय मानुष के दिमाग में सरकार अपने नीति, विधायक मापदंड बदलकर आज परिवर्तन तो करवा दिया मगर उनको फिर से इस दिशा में पुनः सोचने पर मज़बुर समाज के चिंतनशील नागरीकों को आगे बढ़कर इनको पतन के मार्ग से रोकना होगा।
अंत में उन समिति सदस्यों से एक प्रश्न पूछुगा – कया विश्व का ऐसा कोई देश है जहाँ अपनी राष्ट्रभाषा का इस तरह तिरस्कार किया जाता हो। राष्ट्रपिता का जन्म गुजरात में हुआ, दयानंद सरस्वती भी गुजरात में जन्मे आर्य समाजने विदेशों में हिन्दी के परचम लहराए है। गुजरात में से ही हिन्दी का देश निकाल वास्तव में गांधी जी का ही देश निकाला हैं। स्वामी जी के वेद-भारतीय संस्कृति को भारतीय भाषा को विस्तृत कर संत को भी देश से बहार निकाल रहे हैं।
अब हमे राजभाषा-राष्ट्रभाषा के गौरव की पुनः स्थापना करना होगा कयोंकि यह हमारे स्वत्व की भाषा है। आत्मगौरव का प्रतीक हैं। कवि दिनकर ने सही कहा हैं..
छीनता हो स्वत्व कोई और तू त्याग तप से काम ले यह पाप है ।
पूण्य है विच्छन्न कर देना उसे बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ हैं ।।
RASHTRA BHASHA HINDI EDUCTION UTKARSH SE HINDUSHTAN KI BHARTIYA BHASHA KA SAMUTKARSH ABHIYAN.
गुरुवार, 17 जून 2010
अनिवार्य अंग्रेजी लादने का विरोध
hindushtan me koi ek bhasha maniya karne etne sal lagane me laga diye. ki hindi ka education aaj nil ho raha he.
savidhan me343 to 351 tak ki kalam hindi ka prachar prasar karne ki bat karti or all india me english ko compasari madhiyam ki tarha padhaya ja raha he. sarkar ek bhi shiksha bord or education fild ko ye kyo nahi puchati ki hindi shiksha ka muliya nil kyo kiya jaraha he. vese sarkar ki policeya hi hi hindi education ke nesto nabud ho jaye eshi banate ja rahe he. ush me hindvasi kya kare.
hindi me rojgar ki koi aasha ab rahne nahi di. prantiya rajiyo me ya vaha ki bolijati bhasha ka dabdaba he or sath hi bebuj english mediyam shoool-colleges khute ja rahe he ab enshe jo sankrutk aakraman ham par ho raha he use desh ko chudana hoga.
hindi bhasha hamare ashmita or gaurav ka pratik he. uske education ki raksha karna pratiye hindvasi ka dharma he
aatah : may to hind ko ek bhasha ka adhikar purvak pure world ko kah sake esh abhiyan ka sutra-pat pichale 2007 se life ke sabhi kariya hindi me karte huye meri matru bhumi ki bhasha raksha ka utkrash karne se hi sab ka samutkarsh hoga ye samjaraha hu.
संकल्प
संकल्प
गुजरात के हिन्दी प्रेमी शिक्षक भाई-बहनों एवं राष्ट्रभाषा के प्रचार-प्रसार में सेवारत कार्यकरगण को नमस्कार,
गुजरात राजय माध्यमिक शिक्षण बोर्ड से उच्च शिक्षण तक पिछले चार वर्षों में हिन्दी भाषा शिक्षण विरोधी शिक्षानीति को देखकर हर कोई हिन्दी प्रेमी का दिल कराह उठेगा। सरकार की राष्ट्रभाषा के प्रति एसी तिरस्कार की भावना, वास्तव में स्वामी दयानंद सरस्वती जिन्होंने हिन्दी की नींव गुजरात से पूरे विश्व में वेद-धर्म-संस्कृति का परचम लहराया; साथ ही हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का भी अपमान है। आज तक गुजरात की किसी सरकार ने अपनी शिक्षानीति में हिन्दी की ऐसी उपेक्षा नहीं की है। स्वयं को राष्ट्रप्रेमी, राष्ट्रवादी सरकार माननेवाली वर्तमान सरकार का राष्ट्रभाषा विरोध, घोर कलंक ही माना जाना चाहिए।
सरकार ने शिक्षा में बोझ को दूर करने के नाम पर हिन्दी का बलिदान अंग्रेजी शिक्षा को बढ़ावा देने हेतु लिया है। अगर अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा बोझ नहीं समझी जाती तो फिर राष्ट्रभाषा हिन्दी की माध्यमिक शिक्षा या उच्चतर में अनिवार्यता दूर कर अंग्रेजी को रखना अन्याय है, हम वैश्विकीकरण के दौर में अंग्रेजी शिक्षा का विरोध नहीं करते उसे मिटाना नहीं केवल अनावश्यक जगह से थोडा हटाना है। कयोंकि राष्ट्रभाषा हिन्दी शिक्षा को अनिवार्य मानते हैं। गुजरात में ऐसे निर्णय से ग्रामीण और नगर के शिक्षा स्तर में बड़ा अन्तर आ जाएँगा। आज भी ग्रामीण क्षेत्र में अंग्रेजी भाषा के जानकर शिक्षकों की कमी हैं और सामान्य अंग्रेजी का ज्ञान रखनेवाले शिक्षकों के हाथों विद्यार्थिओं को अंग्रेजी सिखायी जाती हैं। इससे तो न हिन्दी के रहे न अंग्रेजी के रहे, “दुविधा में दोनु गए, माया मिली न राम।” वाली उक्ति आज उन शिक्षण के सदस्योंने सही बना दी। ऐसी स्थिति में हम हिन्दी प्रेमी भाई-बहेनों का परम कर्तव्य है कि केवल सरस्वती वंदना से भाषा का भविष्य अब सुरक्षित नहीं रहेगा। उसे श्रद्धा-प्रेम के साथ लोकप्रिय बना कर दीर्धायु भी बनाना आवश्यक हैं। आप सभी से नम्र निवेदन है कि शिक्षित बेरोजगार इतना आश्वासन चाहते हैं तभी उपकार हो सकता है जब हिन्दी से जुड़े लोगों ने हिन्दी की रोटी तो खूब खाई, पर रोटी की हिन्दी पैदा नहीं की। हिन्दी प्रयोजन पर बहस तो खूब की पर प्रयोजन मूलक हिन्दी को अनदेखा किया और उनके ही हाथों हजारों लोग आज बेरोजगारी की गर्त में जा रहे या आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं। इसलिए हमें इसे अपनी रोटी की भाषा न मानते हुए राष्ट्र की अस्मिता एवं स्वाभिमान की भाषा माननी चाहिए अपनी अस्मिता की रक्षा दूसरे का मुँह देखकर नहीं करते वैसे ही राष्ट्र की अस्मिता की रक्षा में स्वयं की आहुति करनी होगी। जिस पर आज शिक्षण-विभाग ने हिंदी के अस्तित्व पर कुल्हाडी चलायी हैं। गांधी जी ने अंग्रेजों को तो राष्ट्र से निकाल बहार किया पर अंग्रेजी मानस को नहीं बदला जा सका। हमें गुजरात सरकार से पूछना होगा कि विश्व का ऐसा कोई देश हैं जहाँ अपनी राजभाषा का इस तरह तिरस्कार किया जाता हो? अपनी भारतीय संस्तृति की धरोहर रूपी भारतीय भाषा को मृतप्रायः अवस्था मे डालना राष्ट्र पतन की निशानी है।
स्वामी दयानंद सरस्वती जी, गांधी जी गुजरात के सपूत थे। हिन्दी भाषा के माध्यम से पूरे हिन्दुस्तान को राष्ट्रीय एकता, धर्म, भाईचारे का संदेश देते हुए अंग्रेजों की गुलामी से भाषा रूपी शस्त्र से परास्त किया। मगर आज उसी गुजरात में हिन्दी का तिरस्कार वास्तव में गांधी जी का ही देश निकाला हैं।
हमारी संघशकित का परिचय देते हुए हिन्दी के गौरव को पुनः स्थापन करना होगा कयोंकि यह हमारी स्वत्व की भाषा है आत्मगौरव-राष्ट्रगौरव की प्रतीक हैं- कवि दिनकर ने सही कहा हैं किः-
“छीनता है स्वत्व कोई और तू त्याग तप से काम ले यह पाप है;
पुण्य है विच्छन्न कर देना उसे बढ़ रहा तेरी तरफ़ जो हाथ है ।।
अपने अधिकार, राष्ट्र अस्मिता को गौरवान्वित करने के लिए लड़ते रहो हम बुंलद आवाज़ में गगन को भर दे और सरकार और शिक्षण-विभाग की जालसाजी का पर्दाफास करें, “जो हिन्दी का नहीं है वह हिन्दुस्तानी भी नहीं हैं।”
गुजरात राज्य हिन्दी शिक्षा
बचाओ समिति
गुजरात के हिन्दी प्रेमी शिक्षक भाई-बहनों एवं राष्ट्रभाषा के प्रचार-प्रसार में सेवारत कार्यकरगण को नमस्कार,
गुजरात राजय माध्यमिक शिक्षण बोर्ड से उच्च शिक्षण तक पिछले चार वर्षों में हिन्दी भाषा शिक्षण विरोधी शिक्षानीति को देखकर हर कोई हिन्दी प्रेमी का दिल कराह उठेगा। सरकार की राष्ट्रभाषा के प्रति एसी तिरस्कार की भावना, वास्तव में स्वामी दयानंद सरस्वती जिन्होंने हिन्दी की नींव गुजरात से पूरे विश्व में वेद-धर्म-संस्कृति का परचम लहराया; साथ ही हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का भी अपमान है। आज तक गुजरात की किसी सरकार ने अपनी शिक्षानीति में हिन्दी की ऐसी उपेक्षा नहीं की है। स्वयं को राष्ट्रप्रेमी, राष्ट्रवादी सरकार माननेवाली वर्तमान सरकार का राष्ट्रभाषा विरोध, घोर कलंक ही माना जाना चाहिए।
सरकार ने शिक्षा में बोझ को दूर करने के नाम पर हिन्दी का बलिदान अंग्रेजी शिक्षा को बढ़ावा देने हेतु लिया है। अगर अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा बोझ नहीं समझी जाती तो फिर राष्ट्रभाषा हिन्दी की माध्यमिक शिक्षा या उच्चतर में अनिवार्यता दूर कर अंग्रेजी को रखना अन्याय है, हम वैश्विकीकरण के दौर में अंग्रेजी शिक्षा का विरोध नहीं करते उसे मिटाना नहीं केवल अनावश्यक जगह से थोडा हटाना है। कयोंकि राष्ट्रभाषा हिन्दी शिक्षा को अनिवार्य मानते हैं। गुजरात में ऐसे निर्णय से ग्रामीण और नगर के शिक्षा स्तर में बड़ा अन्तर आ जाएँगा। आज भी ग्रामीण क्षेत्र में अंग्रेजी भाषा के जानकर शिक्षकों की कमी हैं और सामान्य अंग्रेजी का ज्ञान रखनेवाले शिक्षकों के हाथों विद्यार्थिओं को अंग्रेजी सिखायी जाती हैं। इससे तो न हिन्दी के रहे न अंग्रेजी के रहे, “दुविधा में दोनु गए, माया मिली न राम।” वाली उक्ति आज उन शिक्षण के सदस्योंने सही बना दी। ऐसी स्थिति में हम हिन्दी प्रेमी भाई-बहेनों का परम कर्तव्य है कि केवल सरस्वती वंदना से भाषा का भविष्य अब सुरक्षित नहीं रहेगा। उसे श्रद्धा-प्रेम के साथ लोकप्रिय बना कर दीर्धायु भी बनाना आवश्यक हैं। आप सभी से नम्र निवेदन है कि शिक्षित बेरोजगार इतना आश्वासन चाहते हैं तभी उपकार हो सकता है जब हिन्दी से जुड़े लोगों ने हिन्दी की रोटी तो खूब खाई, पर रोटी की हिन्दी पैदा नहीं की। हिन्दी प्रयोजन पर बहस तो खूब की पर प्रयोजन मूलक हिन्दी को अनदेखा किया और उनके ही हाथों हजारों लोग आज बेरोजगारी की गर्त में जा रहे या आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं। इसलिए हमें इसे अपनी रोटी की भाषा न मानते हुए राष्ट्र की अस्मिता एवं स्वाभिमान की भाषा माननी चाहिए अपनी अस्मिता की रक्षा दूसरे का मुँह देखकर नहीं करते वैसे ही राष्ट्र की अस्मिता की रक्षा में स्वयं की आहुति करनी होगी। जिस पर आज शिक्षण-विभाग ने हिंदी के अस्तित्व पर कुल्हाडी चलायी हैं। गांधी जी ने अंग्रेजों को तो राष्ट्र से निकाल बहार किया पर अंग्रेजी मानस को नहीं बदला जा सका। हमें गुजरात सरकार से पूछना होगा कि विश्व का ऐसा कोई देश हैं जहाँ अपनी राजभाषा का इस तरह तिरस्कार किया जाता हो? अपनी भारतीय संस्तृति की धरोहर रूपी भारतीय भाषा को मृतप्रायः अवस्था मे डालना राष्ट्र पतन की निशानी है।
स्वामी दयानंद सरस्वती जी, गांधी जी गुजरात के सपूत थे। हिन्दी भाषा के माध्यम से पूरे हिन्दुस्तान को राष्ट्रीय एकता, धर्म, भाईचारे का संदेश देते हुए अंग्रेजों की गुलामी से भाषा रूपी शस्त्र से परास्त किया। मगर आज उसी गुजरात में हिन्दी का तिरस्कार वास्तव में गांधी जी का ही देश निकाला हैं।
हमारी संघशकित का परिचय देते हुए हिन्दी के गौरव को पुनः स्थापन करना होगा कयोंकि यह हमारी स्वत्व की भाषा है आत्मगौरव-राष्ट्रगौरव की प्रतीक हैं- कवि दिनकर ने सही कहा हैं किः-
“छीनता है स्वत्व कोई और तू त्याग तप से काम ले यह पाप है;
पुण्य है विच्छन्न कर देना उसे बढ़ रहा तेरी तरफ़ जो हाथ है ।।
अपने अधिकार, राष्ट्र अस्मिता को गौरवान्वित करने के लिए लड़ते रहो हम बुंलद आवाज़ में गगन को भर दे और सरकार और शिक्षण-विभाग की जालसाजी का पर्दाफास करें, “जो हिन्दी का नहीं है वह हिन्दुस्तानी भी नहीं हैं।”
गुजरात राज्य हिन्दी शिक्षा
बचाओ समिति
hindushtan me koi ek bhasha maniya karne etne sal lagane me laga diye. ki hindi ka education aaj nil ho raha he.
savidhan me343 to 351 tak ki kalam hindi ka prachar prasar karne ki bat karti or all india me english ko compasari madhiyam ki tarha padhaya ja raha he. sarkar ek bhi shiksha bord or education fild ko ye kyo nahi puchati ki hindi shiksha ka muliya nil kyo kiya jaraha he. vese sarkar ki policeya hi hi hindi education ke nesto nabud ho jaye eshi banate ja rahe he. ush me hindvasi kya kare.
hindi me rojgar ki koi aasha ab rahne nahi di. prantiya rajiyo me ya vaha ki bolijati bhasha ka dabdaba he or sath hi bebuj english mediyam shoool-colleges khute ja rahe he ab enshe jo sankrutk aakraman ham par ho raha he use desh ko chudana hoga.
hindi bhasha hamare ashmita or gaurav ka pratik he. uske education ki raksha karna pratiye hindvasi ka dharma he
aatah : may to hind ko ek bhasha ka adhikar purvak pure world ko kah sake esh abhiyan ka sutra-pat pichale 2007 se life ke sabhi kariya hindi me karte huye meri matru bhumi ki bhasha raksha ka utkrash karne se hi sab ka samutkarsh hoga ye samjaraha hu.
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